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सातवां अध्याय ( समाधि योग )

घेरण्ड संहिता का यह अन्तिम अध्याय है । जिसमें महर्षि घेरण्ड ने अपने सप्तांग योग के अन्तिम अंग अर्थात् समाधि योग का वर्णन किया है । घेरण्ड संहिता के प्रत्येक अध्याय में योग के एक अंग का वर्णन किया गया है । जिसके अनुसार सात अध्यायों के माध्यम से इनका सप्तांग योग पूर्ण होता है । जिस प्रकार अन्य योग आचार्यों ने समाधि को योग के अन्तिम अंग के रूप माना है । ठीक उसी प्रकार इन्होंने भी समाधि को ही योग का अन्तिम अंग माना है । इन्होंने समाधि के छ: ( 6 ) प्रकार माने हैं । जिनमें क्रमशः ध्यानयोग समाधि, नादयोग समाधि, रसानन्द योग समाधि, लयसिद्धि योग समाधि, भक्तियोग समाधि व राजयोग का वर्णन मिलता है । समाधि योग के फल के रूप में साधक को निर्लिप्तता ( पूर्ण मुक्ति ) की प्राप्ति होती है । समाधि को सर्वोपरि मानते हुए महर्षि घेरण्ड कहते हैं कि यह साधना का अन्तिम पड़ाव है । इसके बाद साधक मुक्ति को प्राप्त हो जाता है । जिससे वह जन्म- मरण के क्रम से पूरी तरह मुक्त हो जाता है ।

समाधि योग

समाधिश्च परो योगो बहुभाग्येन लभ्यते । गुरो: कृपा प्रसादेन प्राप्यते गुरुभक्तित: ।। 1 ।।

भावार्थ :- यह समाधि नामक श्रेष्ठ योग बहुत बड़े भाग्य से प्राप्त होता है । जो साधक गुरु की भक्ति करते हैं और जिनके ऊपर गुरु की कृपा रुपी प्रसाद अथवा आशीर्वाद होता है । उन्ही को इस समाधि योग नामक श्रेष्ठ योग की प्राप्ति होती है । विशेष :- समाधि योग की प्राप्ति किन साधकों को होती है ? उत्तर है गुरु की भक्ति करने वालों को व जिनके ऊपर गुरु की विशेष कृपा दृष्टि होती है ।

विद्याप्रतीति: स्वगुरुप्रतीतिरात्मप्रतीतिर्मंनस: प्रबोध: । दिने दिने यस्य भवेत् स योगी सुशोभनाभ्यासमुपैति सद्य: ।। 2 ।।

भावार्थ :- जिस साधक को ज्ञान प्राप्त करने में, अपने गुरु के प्रति व अपनी आत्मा के प्रति श्रद्धा का भाव होता है साथ ही जिसे अपने मन का पूरा ज्ञान होता है । वह साधक दिन- प्रतिदिन योग के अभ्यास में ऊँची स्थिति को प्राप्त करता है ।

घटाद्भिन्नं मन: कृत्वा ऐक्यं कुर्यात् परात्मनि । समाधिं तं विजानीयान्मुक्तसंज्ञो दशादिभि: ।। 3 ।। अहं ब्रह्म न चान्योऽस्मि ब्रह्मैवाहं न शोकभाक् । सच्चिदानंदरूपोऽहं नित्यमुक्त: स्वभाववान् ।। 4 ।।

भावार्थ :- जब साधक अपने मन को शरीर से अलग समझकर उसका ( मन का ) परमात्मा के साथ एकीकरण कर देता है । तब वह समाधि की अवस्था कहलाती है । इस अवस्था में साधक जीवन की अनेक दशाओं ( सांसारिक अवस्थाओं ) से पूरी तरह मुक्त हो जाता है । इस प्रकार समाधि भाव को प्राप्त होने पर साधक में मैं ब्रह्मा हूँ, ब्रह्मा के अतिरिक्त कुछ नहीं हूँ, मुझमे ब्रह्म भाव है न की किसी प्रकार के दुःख का भाव है । मैं सदैव मुक्त स्वभाव वाला, सत् चित्त व आनन्द के स्वरूप से परिपूर्ण हूँ । विशेष :- समाधि की अवस्था में मन का किसके साथ एकीकरण हो जाता है ? उत्तर है परमात्मा के साथ । साधक ब्रह्म भाव से कब परिपूर्ण होता है ? उत्तर है समाधि प्राप्ति के समय ।

समाधि के छ: ( 6 ) प्रकार

शाम्भव्या चैव भ्रामर्या खेचर्या योनिमुद्रया । ध्यानं नादं रसानन्दं लयसिद्धिश्चुतुर्विधा ।। 5 ।। पञ्चधा भक्तियोगेन मनोमूर्च्छा च षड्विधा । षड्विधोऽयं राजयोग: प्रत्येकमवधारयेत् ।। 6 ।।

भावार्थ :- जब साधक अपने मन को शरीर से अलग समझकर उसका ( मन का ) परमात्मा के साथ भावार्थ :- शाम्भवी, भ्रामरी, खेचरी व योनिमुद्राओं से क्रमशः ध्यान योग समाधि, नादयोग समाधि, रसानन्द समाधि व लयसिद्धि योग नामक चार प्रकार की समाधियों में सिद्धि प्राप्त होती है । पाँचवी प्रकार की समाधि भक्तियोग व छठी मनोमूर्च्छा से राजयोग नामक समाधि की प्राप्ति होती है । साधक को प्रत्येक समाधि को धारण ( आत्मसात ) करना चाहिए । विशेष :- ध्यान योग समाधि किस मुद्रा का परिणाम है ? उत्तर है शाम्भवी मुद्रा का । खेचरी मुद्रा के अभ्यास से कौन सी समाधि की प्राप्ति होती है ? उत्तर है रसानन्दयोग समाधि की । भ्रामरी मुद्रा किस समाधि की परिचायक है ? उत्तर है नादयोग समाधि की । लयसिद्धि योग समाधि किसके अभ्यास से सिद्ध होती है ? उत्तर है योनिमुद्रा के अभ्यास से । भक्तियोग समाधि को कौन सी समाधि माना गया है ? उत्तर है पाँचवी समाधि । सबसे उच्च व अन्तिम समाधि का क्या नाम है ? उत्तर है राजयोग समाधि । राजयोग समाधि किस मुद्रा का फल है ? उत्तर है मनोमूर्च्छा मुद्रा का । घेरण्ड संहिता में कुल कितनी समाधि बताई गई हैं ? उत्तर है छ: ( 6 ) प्रकार की ।

ध्यान योग समाधि वर्णन

शाम्भवीं मुद्रिकां कृत्वा आत्मप्रत्यक्षमानयेत् । बिन्दुब्रह्ममयं दृष्ट्वा मनस्तत्र नियोजयेत् ।। 7 ।। खमध्ये कुरु चात्मानं आत्ममध्ये च खं कुरु । आत्मानं खमयं दृष्ट्वा न किञ्चिदपि बाधते । सदानन्दमयो भूत्वा समाधिस्थो भवेन्नर: ।। 8 ।।

भावार्थ :- शाम्भवी मुद्रा का अभ्यास करते हुए साधक को अपनी आत्मा का साक्षात्कार करना चाहिए साथ ही ब्रह्म स्वरूप बिन्दु को देखते हुए वहीं पर अपने मन को केन्द्रित करें । अब अपनी आत्मा को आकाश के बीच में व आकाश को आत्मा के बीच में स्थित करें । आत्मा को आकाश के बीच में स्थित करने पर किसी प्रकार की कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती । ऐसा करने पर मनुष्य सदैव समाधि को प्राप्त करके आनन्दमय हो जाता है । यह ध्यान योग समाधि कहलाती है । विशेष :- शाम्भवी मुद्रा में आत्मा को कहा पर स्थित किया जाता है ? आकाश के मध्य अथवा बीच में ।

नादयोग समाधि वर्णन

अनिलं मन्दवेगेन भ्रामरीकुम्भकं चरेत् । मन्दं मन्दं रेचयेद्वायुं भृङ्गनादं ततो भवेत् ।। 9 ।। अन्त:स्थं भ्रामरीनादं श्रुत्वा तत्र मनो नयेत् । समाधिर्जायते तत्र आनन्द: सोऽहमित्यत: ।। 10 ।।

भावार्थ :- वायु को धीमी गति के साथ शरीर के अन्दर भरकर भ्रामरी कुम्भक करे । इसके बाद उस वायु को धीरे- धीरे बाहर निकालते हुए भँवरे जैसा नाद ( उच्चारण अथवा ध्वनि ) उत्पन्न होता है । इस प्रकार शरीर के अन्दर हो रहे उस नाद ( ध्वनि ) को सुनकर वहीं पर अपने मन को केन्द्रित करने से साधक की समाधि लग जाती है और ‘जहाँ पर आनन्द वहीं पर मैं’ ( ‘सोऽहम’ ) के भाव की प्राप्ति होती है । इसे नादयोग समाधि कहा जाता है । विशेष :- भ्रामरी मुद्रा के अभ्यास के समय किस प्रकार की ध्वनि अथवा नाद की उत्पत्ति होती है ? उत्तर है भँवरे की ।

रसानन्दयोग समाधि वर्णन

साधनात् खेचरीमुद्रा रसनोर्ध्वंगता यदा । तदा समाधिसिद्धि: स्याद्धित्वा साधारणक्रियाम् ।। 11 ।।

भावार्थ :- खेचरी मुद्रा की साधना ( अभ्यास ) करने पर साधक की जीभ ऊपर की ओर चली जाती है । जिसके परिणामस्वरूप साधक बिना किसी अन्य सामान्य क्रियाओं के ही समाधि को सिद्ध कर लेता है । इसे रसानन्दयोग समाधि कहा गया है ।

लयसिद्धि योग समाधि

योनिमुद्रां समासाद्य स्वयं शक्तिमयो भवेत् । सुश्रृङ्गाररसेनैव विहरेत् परमात्मनि ।। 12 ।। आनन्दमय: समभूत्वा ऐक्यं ब्रह्मणि सम्भवेत् । अहं ब्रह्मेति चाद्वैतं समाधिस्तेन जायते ।। 13 ।।

भावार्थ :- योनिमुद्रा के द्वारा साधक स्वयं को शक्तिशाली बनाकर परमात्मा के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करे । आनन्दमय होकर ब्रह्मा के साथ एकीकरण का भावना करने से ‘मैं ही ब्राह्म हूँ’, इस प्रकार की अद्वैत ( एक ही भाव अथवा अभेद ) समाधि की प्राप्ति होती है । इसे लयसिद्धि योग समाधि कहते हैं ।

भक्तियोग समाधि

स्वकीयहृदये ध्यायेदिष्टदेव स्वरूपकम् । चिन्तयेद् भक्तियोगेन परमाह्लादपूर्वकम् ।। 14 ।। आनन्दाश्रुपुलकेन दशाभाव: प्रजायते । समाधि: सम्भवेत्तेन सम्भवेच्च मनोन्मनी ।। 15 ।।

भावार्थ :- अपने हृदय प्रदेश में अपने इष्टदेव का ध्यान करें और परमानन्द के साथ भक्तियोग का चिन्तन करना चाहिए । जब साधक का हृदय परमानन्द के अश्रुओं से उदित हो जाता है तब उसकी भावना विशेष प्रकार के भक्तिभाव से परिपूर्ण हो जाती है । जिससे मनोन्मनी ( मन में उन्मनी भाव से ) समाधि की प्राप्ति हो जाती है । इसे भक्तियोग समाधि कहा जाता है । विशेष :- भक्तियोग समाधि में साधक अपने हृदय में किसका ध्यान करता है ? उत्तर है अपने इष्टदेव का । भक्तियोग से कौन सी समाधि प्राप्त होती है ? उत्तर है मनोन्मनी समाधि ।

भक्तियोग समाधि

स्वकीयहृदये ध्यायेदिष्टदेव स्वरूपकम् । चिन्तयेद् भक्तियोगेन परमाह्लादपूर्वकम् ।। 14 ।। आनन्दाश्रुपुलकेन दशाभाव: प्रजायते । समाधि: सम्भवेत्तेन सम्भवेच्च मनोन्मनी ।। 15 ।।

भावार्थ :- अपने हृदय प्रदेश में अपने इष्टदेव का ध्यान करें और परमानन्द के साथ भक्तियोग का चिन्तन करना चाहिए । जब साधक का हृदय परमानन्द के अश्रुओं से उदित हो जाता है तब उसकी भावना विशेष प्रकार के भक्तिभाव से परिपूर्ण हो जाती है । जिससे मनोन्मनी ( मन में उन्मनी भाव से ) समाधि की प्राप्ति हो जाती है । इसे भक्तियोग समाधि कहा जाता है । विशेष :- भक्तियोग समाधि में साधक अपने हृदय में किसका ध्यान करता है ? उत्तर है अपने इष्टदेव का । भक्तियोग से कौन सी समाधि प्राप्त होती है ? उत्तर है मनोन्मनी समाधि ।

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 Last Date Modified

2024-08-05 16:58:34

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